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'Yaara' Review: विद्युत जामवाल और अमित साध की देसी-कम-वेस्टर्न फिल्म में है थ्रिलर-क्राइम और ड्रामे की कमी

फिल्म: यारा

कास्ट: विद्युत जामवाल, अमित साध, श्रुति हासन, विजय वर्मा, केनी बसुमतरी, संजय मिश्रा, अंकुर वकील, मोहम्मद अली शाह

डायरेक्टर: तिग्मांशु धूलिया

OTT: Zee5

रेटिंग: 2.5 मून्स

तिग्मांशु धूलिया की हाल ही में Zee5 पर प्रीमियर होने जा रही फिल्म 'यारा' को देख आपको एक पल के लिए यकीं नहीं होगा कि इस फिल्म को उसी शख्स ने बनाया है, जिसने 'साहेब बीवी और गैंगस्टर' 1 और 2 और 'पान सिंह तोमर' जैसी फ़िल्में भी बनाई हैं. हालांकि उनकी हर फिल्म की तरह इस फिल्म में भी दोस्ती और विश्वासघात की झलक आपको देखने मिलेगी.

(यह भी पढ़ें:: Exclusive: विद्युत जामवाल ने कहा- 'एक्शन नहीं, लेकिन मेरे सभी निर्देशक चाहते हैं कि मैं फिल्मों में एक शर्टलेस सीन जरूर करूं')

2011 की  फ्रेंच क्राइम ड्रामा लेस लियोनिस (ए गैंग स्टोरी) पर आधारित यह फिल्म चार बचपन के दोस्तों की कहानी है, जो अपराध की दुनिया में लुका-छुपी करते हुए जवान होते हैं. वह अपने हर एक जरुरत के लिए कानून के गलत पक्ष का सहारा लेते हैं. यारा में आप उन्हें 70 के दशक में बंदूक चलाते , देशी शराब बेचते और फायदे के लिए जमीन खरीदते और बेचते हुए देखेंगे. तिग्मांशु  द्वारा डायरेक्ट की गयी पहले की फिल्मों को देखते हुए दर्शक इसे थ्रिलर से भरपूर होने की उम्मीद जहां कर रहे हैं, वहीं यह फिल्म सिर्फ प्रेरणा देती नजर आ रही है.

समय के साथ आगे और पीछे चलते हुए, यारा की शुरुआत 1990 के दशक में दिल्ली में एक पार्टी से होती है, जहां हम तीनों लीड फागुन (विद्युत जामवाल), रिज़वान (विजय वर्मा) और बहादुर (केनी बसुमतारी) को देखते हैं. तीनों गुनाह की दुनिया से आगे बढ़ चुके होते हैं और अपनी नई जिंदगी जी रहे होते हैं, लेकिन उनका पुराना दोस्त मितवा (अमित साध) की वापसी उन्हें अपराध की दुनिया में वापस ले जाती है, जहां से उनका लौटना न मुमकिन हो जाता है.

90 के दशक की एक झलक दिखाते हुए फिल्म की कहानी 1950 के दशक में राजस्थान में जाती है जहां हम चारो लीड एक्टर्स को बच्चो के रूप में देखते हैं. जातिगत अत्याचार और नक्सलवाद, वर्गीय शोषण, यौन हिंसा और राज्य उत्पीड़न का प्रारंभिक संदर्भ धूलिया के जादू की उम्मीद जगाता है, लेकिन कहानी के कई सीरे ढीले छूटते हुए नजर आते हैं. फिल्म के किरदारों में आपको दम नहीं नजर आएगा, फिल्म का प्लाट फटका हुआ है और किरदार फिल्म की आखिर में आप पर अपनी छाप नहीं छोड़ पाते हैं.

गनग का लीडर होने के नाते विद्युत को सबसे ज्यादा एक्शन सीन्स करने को मिले हैं.  वहीं, अमित ब्रूडिंग, मनमौजी दोस्त है, जिसकी एंट्री उसके दोस्तों के जीवन में कहर ढाती है. विद्युत और अमित की बॉन्डिंग उन्हें बचपन के उस दौर की याद दिलाती है, जब वह किशोर होने से पहले एक साथ अपराध का जीवन अपना लेते हैं. विजय 1970 के दशक के अमिताभ बच्चन की नकल करने की कोशिश करते हैं और असम के एक्टर-डायरेक्टर केनी को नेपाल के एक व्यक्ति की भूमिका निभाने के लिए दिया गया है. कहानी लेखन में ढिलाई होने के कारण उनका शानदार परफॉरमेंस भी उनके किरदार को जिन्दा नहीं कर पाता है.

बड़े बाप की बेटी होकर नक्सलियों के साथ काम करने वाली श्रुति हासन का रोल परम की पत्नी के रूप में असर खो देता है. वहीं, फिल्म में आगे आधी उम्र बीतने के बाद जब चारो दोस्त मिलते हैं, तब उनके पीछे एक इंटरनेशनल क्रिमिनल और एक सीबीआई अफसर जसजीत सिंह (मोहम्मद अली शाह) पड़ जाता है. सीबीआई अफसर इन लोगों के खिलाफ बड़ी कार्रवाई करके अपना रिटायरमेंट सुधारना चाहता है. और इस तरह इनकी वफादारी का परखने का वक़्त भी आ जाता है. 

कहानी को पुराने दिनों का फील देने के लिए, पटना में दीवारों पर जयप्रकाश नारायण की तस्वीरें देखने मिलती हैं, जबकि दिल्ली कॉलेज के स्टूडेंट्स के यूनियन रूम में 70 के दशक में हुए एक्शन की झलक देखने मिलती है. ऐसे में 70 के दशक का स्वाद देने की कोशिश करते हुए शोले, अमर अकबर एंथोनी के फिल्म पोस्टर और फिल्म चित चोर, त्रिशूल के डायलॉग्स और अमानुष के गाने को फिल्म में जगह दी गयी है.

यारा एक बेहतरीन टेस्टोस्टेरोन से भरपूर, देसी वेस्टर्न-कम-क्राइम सागा हो सकती थी, लेकिन दर्शकों की दिलचस्पी को बनाए रखने के लिए फिल्म में इन चीजों की कमी साफ़ देखी जा सकती है. फिल्म में और स्पष्टता होने के साथ क्रिस्प से भरपूर  लेखन और मजबूत स्टोरीलाइन होने की जरुरत है.

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