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‘बैटल ऑफ सारागढ़ी’: 21 वीर सिख जवानों की अनकही शौर्य गाथा

भारतीय हिंदी सिनेमा में अभिनेता अक्षय कुमार ‘होली’ के मौके पर ‘बैटल ऑफ़ सारागढ़ी’ की असली शौर्य गाथा बताते हुए फिल्म ‘केसरी’ लेकर आ रहें हैं. लेकिन अब हमारे ज़हन में कई सवाल ये उठते हैं कि क्यों  ‘बैटल ऑफ़ सारागढ़ी’ भारतीय इतिहास की किताबों में मेंशन नहीं है?, हमें क्यों नहीं पढ़ाया गया हमारे 21 सिख जवानों की बहादुरी के बारे में जिन्होंने 10,000 अफगानियों से लोहा लिया था.

इस वीरता पूर्ण युद्ध में  हवलदार ईशर सिंह ने ये जानते हुए कि आगे मौत खड़ी है सेना का नेतृत्व किया था,ये युद्ध 12 सितम्बर 1897 में लड़ा गया था, जिसे विश्व के इतिहासकारों ने सबसे बड़ी लड़ाइयों में शामिल किया है. जिस जंग का याद करते हुए ब्रिटेन आज तक सारागढ़ी दिवस सेलीब्रेट करता है उस जंग और उन वीरों को इस देश में याद नहीं रखा गया.

‘बैटल ऑफ सारागढ़ी’ को यूनेस्को ने विश्व की 5 सबसे बहादुरी से लड़ी गयी लड़ाइयों में शामिल किया है, बता दें कि अनुराग सिंह निर्देशित फिल्म ‘केसरी’ से उन 21 वीर जवानों को ट्रिब्यूट देने की कोशिश की जा रही है. इस फिल्म अक्षय कुमार लीड रोल इशर सिंह का निभा रहें हैं. एक्शन सुपरस्टार ने खुद ये माना कि ‘केसरी’ के पहले उन्हें इस वीर गाथा के बारे में नहीं पता था. ‘केसरी’ के फिल्ममेकर्स की पूरी कोशिश है कि इस फिल्म के जरिये लोग इस महान वीर गाथा को जान सकें.

‘बैटल ऑफ़ सारागढ़ी’ काफी मायनों में ‘बैटल ऑफ Thermopylae’ से मिलती है, जहां छोटी सी ग्रीक फ़ोर्स ने काफी बड़ी पर्सियन आर्मी का सामना किया था, इसी कहानी की रूप रेखा तैयार करके हॉलीवुड की 300 में भी प्रदर्षित किया गया था. 12 सितम्बर 1897 में ‘बैटल ऑफ़ सारागढ़ी’ युद्ध लड़ा गया था, ब्रिटिश इंडिया के 21 सिख जवानों और 10,000 अफगानियों के बीच,बता दें कि हिदंकुश पर्वत माला पर स्थित एक छोटा सा गांव सारागढ़ी है, ये आज पाकिस्तान का हिस्सा है.

अगस्त 1897 में लेफ्टिनेंट कर्नल जॉन हैटन की कमान में 36वीं सिख रेजिमेंट की पांच कंपनियों को ब्रिटिश-इंडिया के उत्तरपश्चिमी सीमा पर भेजा गया था और समाना हिल्स, कुराग, संगर, सहटॉप धर और सारागढ़ी में उनकी तैनाती की गई थी.

इसके साथ ही आपको बता दें कि सारागढ़ी के ऊपर कब्जे के लिए अफगानों और अंग्रेजों के बीच अक्सर लड़ाई होती रहती थी, इसका मुख्य कारण इसकी लोकेशन को माना जाता है जो कि उस दौर में  रणनीतिक रूप में काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है.

साल 1987 में नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर स्टेट पर करीब 12 हज़ार से भी ज्यादा अफगानियों ने हमला कर दिया था, तब उस दौरान उनका एक ही मकसद था, प्रसिद्ध  लोखार्ट के किलों पर कब्ज़ा करते हुए अपनी रणनीतिक ताकतों को बढ़ावा देना. बता दें कि इन किलों को तब के महाराजा रणजीत सिंह ने बनवाया था.

आखिरकार वो एक दिन आ ही गया था जब अफगानों ने सारागढ़ी पर हमला कर दिया, उस दौरान आनन फानन में सरदार गुरुमुख सिंह ने तब के ब्रिटिश कमांडर को इस हमले की सूचना भी दी थी लेकिन तत्काल प्रभाव से सेना को वहां भेजना मुमकिन नहीं हो पाया था. अब मदद की उम्मीद टूटते हुए देखकर लांस नायक लाभ सिंह और भगवन सिंह ने मोर्चा संभालते हुए लड़ाई की शुरुआत कर दी थी, हजारों की संख्या में आये पश्तूनों की गोली का पहला शिकार बनें भगवान सिंह, जो की मुख्य द्वार पर दुश्मन को रोक रहे थे.

इसके बाद सवाल ये उठा कि अब नेतृत्व कौन करेगा, इस सवाल का जवाब बनाकर आगे आये हवलदार इशर सिंह, जिन्होंने नेतृत्व संभालते हुए,अपनी टोली के साथ "जो बोले सो निहाल,सत श्री अकाल" का नारा लगाया और दुश्मनों से जमकर लड़ाई लड़ने की शुरुआत कर दी,सभी 21 जवानों ने पूरी शिद्दत के साथ और देशभक्ति की भावना के साथ ऐसी लड़ाई लड़ी जिसने इतिहास में अपनी जगह बना ली, ऐसी बहादुरी का प्रतीक ना पहले कोई बना था और ना ही बाद में किसी ने दर्ज करवाया.

आपको बता दें कि लड़ते-लड़ते सुबह से रात हो गयी थी, सभी 21 रणबांकुरे शहीद हो गए थे, पर उससे पहले उन्होंने 900 से अधिक अफगानों को धूल चटा दी थी, जीते जी उन्होंने उस विशाल फ़ौज के आगे आत्मसमर्पण नहीं किया था.

सारागढ़ी की लड़ाई में लड़ते-लड़ते पठान बुरी तरह परास्त हो रहे थे, वो ये जंग जीत कर भी हारने लगे और रणनीति से भटक गए. दूसरे दिन ब्रिटिश इंडिया ने आर्मी के साथ सारागढ़ी में मौजूद अफगानियों पर हमला कर दिया और कड़ी लड़ाई के बाद सारागढ़ी पर वापस अपना कब्जा कर लिया.

 

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