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Exclusive Interview: 'पोस्‍टर बॉयज' ने किया खुलासा, यहां से मिला नसबंदी पर फिल्‍म बनाने का आइडिया

श्रेयस तलपड़े, सनी देओल और बॉबी देओल की आने वाली फिल्म 'पोस्‍टर बॉयज' आजकल काफी चर्चा में है. पुरुष नसबंदी के सब्जेक्ट पर बनी यह कॉमेडी फिल्म ऐसे किरदारों की शर्मिंदगी और उलझन को दर्शाती है जिनकी जानकारी के बगैर उनकी फोटोज 'पुरुष नसबंदी' वाले पोस्टर्स पर छाप दी जाती हैं. श्रेयस तलपड़े के निर्देशन में बनी यह पहली हिंदी फिल्म है. पेश है 'पोस्‍टर बॉयज' की Peeping moon  से Exclusive बातचीत के कुछ अंश...

फिल्म करते समय आप क्या मंत्र फॉलो करते हैं?
सनी: हम अक्सर इस उलझन में फंसे रहते हैं कि मुझे शायद यह करना चाहिए था या कुछ और...लेकिन हमें बस आगे बढ़ते रहना चाहिए. मैंने जब अपनी पहली फिल्म की थी, तो मुझे कुछ भी आइडिया नहीं था. मैं बस उसमें पूरी तरह डूब गया. इंसान को बस खुद पर पूरा भरोसा रखना चाहिए. गलतियां होंगी, लेकिन आपको चलते जाना है.

श्रेयस आपकी पहली हिंदी फिल्म के निर्देशन का अनुभव कैसा रहा?
श्रेयस: एक्टिंग के अलावा मैं एक मराठी फिल्म का प्रोड्यूसर भी रह चुका हूं. लेकिन जहां तक निर्देशन का सवाल है, यह मेरी पहली फिल्म है. डायरेक्शन का काम बहुत मजेदार था. सनी पाजी ने काफी सपोर्ट किया और कॉन्फिडेंस भी बढ़ाया. मुझे याद है कि जब सुभाष जी ने मुझे प्रोडक्शन में उतरने के लिए सपोर्ट किया था, वो भी मैंने बहुत एन्जॉय किया था. लेकिन डायरेक्शन को लेकर मैं काफी नर्वस था. मुझे नहीं पता था कि मुझसे यह काम अच्छी तरह हो
पायेगा या नहीं. लेकिन सनी पाजी ने मुझे इस बात का एहसास कराया कि तुम्हारे दिमाग में सारी चीजें क्लियर हैं, तो फिर कोशिश कर लो. एक अच्छी टीम ले लो साथ में, और शुरू हो जाओ. बाकी हम सब साथ में तो हैं. तो ऐसा कॉन्फिडेंस किसी में लाना बहुत जरूरी होता है. पूरा प्रोसेस मेरे लिए बहुत एन्जॉयबल था.

शूटिंग के दौरान का कोई मजेदार या परेशानी भरा किस्सा आपको याद है? सुना है कि सनी गुस्सैल होने के साथ-साथ क्रिएटिव भी हैं. तो उनसे जुड़ा कोई किस्सा?
श्रेयस: सनी पाजी एक ऐसे इंसान हैं, जिसकी फिल्में देख कर मैं बड़ा हुआ हूं. आप इस नजरिये से देखिये कि कोई ऐसा इंसान है जिसकी आप हमेशा से सराहना करते आये हैं, उनके गाने गुनगुनाते रहे हैं या उनके डायलॉग बोलते रहे हैं और अब अचानक से आपको मौका मिलता है कि आपको न सिर्फ उनके साथ काम करना है बल्कि उन्हें डायरेक्ट भी करना है, तो थोड़ा सा प्रेशर तो होता ही है. बतौर डायरेक्टर आप अपने एक्टर के साथ बहुत वक्‍त बिताते हैं.
शूटिंग के दौरान उन्होंने पूरी कोशिश की कि वो मुझे कम्फर्टेबल फील करा सकें. वो मेरे साथ पूरी शालीनता के साथ पेश आए. मेरे काम में और मेरे फैसलों में उन्होंने कभी आनाकानी नहीं की और न ही कभी कोई सवाल किया. उन्होंने सिर्फ चीजें बेहतर करने में मेरी मदद की. वो थोड़े शर्मीले हैं, थोड़े रिजर्व्ड हैं. लेकिन फिल्मों में जो उनकी वॉयलेंट इमेज है या ढाई किलो के हाथ वाली इमेज है, ऐसे वो असल जिंदगी में नहीं हैं. बल्कि वो तो पूरी टीम के लिए काफी प्रोटेक्टिव हैं. उन्होंने तो मेरे साथ एक बड़े भाई की हैसियत से काम किया. अगर उनका सपोर्ट नहीं होता तो हमने यह शूटिंग 37-38 दिनों में पूरी नहीं की होती.

फिल्म के जिन सीन्स में आपने एक्टिंग की है, उस समय डायरेक्शन में किसने आपकी मदद की?
श्रेयस: हमारे क्रिएटिव सुपरवाइजर हमारे साथ थे जो कि खुद एक डायरेक्टर भी हैं. उन्होंने हर सीन को बड़ी बारीकी से परखा. वो देख कर फाइनल करते थे, फिर हम उस सीन को देख कर फाइनल करते थे. मैं और बॉबी पहले से चीजों को तैयार रखते थे ताकि सीन फाइनल करने में बाद में कोई परेशानी न हो.

अब जब आप एक्टर होने के साथ-साथ इस फिल्म के डायरेक्टर भी हैं, तो क्या शूटिंग के दौरान आप पर कोई चिल्लाने वाला था?
श्रेयस: इससे जुड़े कई मजाकिया किस्से हैं. ऐसा कई बार हुआ कि 'ओके रेडी, रोल कैमरा, एक्शन' खुद बोलने के बाद मैंने एक्टिंग शुरू कर दी. हालांकि हमारे क्रिएटिव सुपरवाइजर इन बातों का ध्यान रखते थे और सारा काम पूरी जिम्मेदारी से करते थे. लेकिन कई बार उन्हें भी नहीं पता होता था कि कहां सीन कट करना है, तो कई बार शॉट रोल होते हुए मुझे ही कट बोलना पड़ता था.

'ढाई किलो का हाथ' जैसा कोई आपका डायलॉग इस फिल्म में भी है, जो दर्शकों कि जुबान पर चढ़ जाए?
सनी: देखिये, हम लोगों के जितने भी डायलॉग्स आज तक फेमस हुए हैं, उनके बारे में शुरू में हमें खुद ही नहीं पता होता था कि वो इतने पॉपुलर हो जाएंगे. वो उस समय की सिचुएशन के साथ और उन करैक्टर्स के साथ पॉपुलर हो गए. लेकिन हां इस फिल्म में भी श्रेयस ने कुछ डायलॉग्स नैरेट किए हैं, जिनको नैरेट करते समय श्रेयस खुद करैक्टर में आ जाते थे. स्क्रिप्ट में मेरे बोले जाने वाले डायलॉग्स वो मुझे मेरे ही अंदाज में सुनाते थे. ये काफी होता
था.

आपकी फिल्म का जो सब्जेक्ट है 'नसबंदी', वो एमरजेंसी के टाइम का है यानी 1975 का. और अभी हाल ही में दो और फिल्में आईं 'बादशाहो' और 'इंदु सरकार' - ये दोनों भी एमरजेंसी (1975) के टाइम पर बनी हैं. यह एक बड़ा इत्तेफाक है. क्या आप लोग वाकई उस समय के हालातों से वाकिफ हैं कि उस समय जनता के बीच में नसबंदी कैसा मुद्दा रहा होगा?
सनी: हां मुझे एमरजेंसी का दौर याद है. लेकिन हमारी फिल्म उस एमरजेंसी के पीरियड या उस सब्जेक्ट से जुड़ी हुई नहीं है. नसबंदी का अभियान उस समय शुरू जरूर हुआ था, लेकिन यह आज भी जारी है. और उसके अलावा देखा जाए तो कितनी बार ऐसा होता है कि हम लोग गलत आदमी के पोस्टर्स लेकर छाप देते हैं. उसको पता भी नहीं होता कि मेरे फोटो वाला पोस्टर कहां-कहां चिपका हुआ है. तो ऐसे में उस इंसान का क्या होगा, हमारी फिल्म की कहानी इस बारे में है.

श्रेयस: हमारी कहानी का नसबंदी से कोई लेना देना नहीं है. फिल्म में हमने नसबंदी के बारे में कोई ज्ञान नहीं दिया है. कहानी सिर्फ उन तीन लोगों के कन्फ्यूजन के इर्द गिर्द बुनी गई है जिनकी जानकारी के बिना उनके पोस्टर्स जगह जगह चिपका दिए गए हैं. कहानी में उन तीन लोगों की शर्म दिखाई गई है कि वो क्या क्या प्रॉब्लम्स फेस करते हैं और उनमें से कैसे निकलते हैं.

नसबंदी पर फिल्म बनाने का आइडिया कहां से आया?
श्रेयस: एक न्यूज आईथी महाराष्ट्र के किसी गांव की जहां तीन कुली की फोटो छाप दी गई थी नसबंदी के पोस्टर पर. और उन पोस्टर्स पर लिखा था कि नसबंदी कराने से कोई कमजोरी नहीं आती और आप उतनी ही मेहनत का काम कर सकते हैं. तो ऐसे पोस्टर्स छपने की वजह से उन तीनों की लाइफ में काफी प्रॉब्लम्स हो गई थीं. उसको हमने एडाप्ट किया और इसके इर्द गिर्द हमने कहानी बुनी कि तीन लोग हैं जो अलग अलग प्रोफेशन्स से आते हैं और अचानक उनके साथ ऐसा हो जाता है कि उनकी फोटो के साथ पोस्टर्स छप जाते हैं. फिर उन्हें कितनी शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है और वो कैसे इससे बाहर निकलते हैं. तो हमें यह काफी मजाकिया लगा था. आज भी आप किसी अस्पताल में अगर जाएं तो नसबंदी के पोस्टर्स पर आपको या तो कार्टून देखने को मिलेंगे या फिर महिलाएं. लेकिन मर्द आपको कभी नसबंदी के पोस्टर्स में नहीं दिखेंगे. क्यूंकि यह आदमियों की मर्दानगी पर सवाल उठा देता है.

यह फिल्म एक साथ करने का कैसे सोचा आपने?
सनी: मैंने और बॉबी ने जब स्क्रिप्ट सुनी तो हमें लगा कि यह अच्छा आइडिया है और अच्छी कहानी है, तो हमें साथ में करनी चाहिए. फिर श्रेयस से सारी बातें हुईं. श्रेयस बनाना भी चाह रहा था एक फिल्म लेकिन सब कुछ बस सोच की शक्ल में ही था. तो हम लोग मिलें और हमने शूटिंग प्लान बनाना शुरू किए. शूटिंग भी जल्दी खत्म करने का मूड था क्यूंकि सबकी आगे की कुछ डेट्स बुक्ड थीं. फिर डायरेक्टर की बात निकली, तो सबका यही सोचना था कि श्रेयस की कहानी है, उसने सब अरेंज किया है, तो डायरेक्शन भी वो अच्छा ही करेगा. और ऐसे ही प्लान बन गया.

बॉबी काफी लम्बे अरसे बाद नजर आ रहे हैं बड़े परदे पर?
बॉबी: पिछले 4 सालों में मुझे किसी ने कोई अच्छी कहानी ही नहीं सुनाई. मैं कोई ऐसी फिल्म नहीं करना चाहता था जिससे मैं और पीछे चला जाऊं. पर जब यह कहानी सुनी तो इसमें अपना करैक्टर भी पसंद आया. कई वर्कशॉप्स भी अटेंड कीं. शुद्ध हिंदी में इस फिल्म में वार्तालाप करनी थी मुझे, तो उस पर भी काफी काम करना पड़ा. लेकिन कुल मिलाकर बहुत मजा आया. आगे मैं 'यमला पगला दीवाना' का तीसरा पार्ट भी कर रहा हूं.

 

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