'जॉली एलएलबी' में जज सुंदरलाल त्रिपाठी के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीतने वाले सौरभ शुक्ला उन कलाकारों में शुमार हैं, जो फिल्म के हीरो नहीं होने के बावजूद लोग उन्हें और उनके संवादों तक को याद रखते हैं. सौरभ हालांकि मानते हैं कि लोग हीरो या किसी चरित्र कलाकार को नहीं, बल्कि संवादों को याद रखते हैं.
फिल्म 'जॉली एलएलबी-2' में आपका एक डायलॉग था- 'कानून अंधा होता है जज नहीं..' जो काफी पसंद किया गया. इससे पता चलता है कि लोग फिल्मों में केवल सुपरस्टार्स को ही नहीं, बल्कि बाकी कलाकारों को भी याद रखते हैं.
सौरभ ने आईएएनएस को एक खास बातचीत में बताया, 'मुझे लगता है कि लोग हीरो या चरित्र कलाकार के संवाद याद नहीं रखते हैं बल्कि वह उन लाइनों को याद रखते हैं जो कही गई होती हैं. यह अभिनेता की वजह से नहीं है..हो सकता है उनकी अदायदी की वजह हो लेकिन लोग उस संवाद के शब्दों के आकर्षण को याद रखते हैं.'
'नायक', 'बर्फी' और 'जॉली एलएलबी' व 'जॉली एलएलबी-2' जैसी फिल्मों में अपनी कॉमेडी के लिए मशहूर सौरभ से जब पूछा गया कि आज फिल्मों में हो रही कॉमेडी कहां स्टैंड करती है, इस पर सौरभ ने कहा, "मैं यह नहीं बता सकता हूं क्योंकि मैंने पहले भी कॉमेडी की है और अभी भी कर रहा हूं. मुझे नहीं लगता कि इस शैली में कोई बदलाव आया है.'
आप अपने अब तक के सफर को कैसे देखते हैं? इस पर सौरभ कहते हैं, 'मैं बहुत भाग्यशाली रहा हूं, जब मैंने फिल्मों में काम करने के लिए दिल्ली छोड़ा था तो मेरे कद-काठी और मेरी शक्ल के इंसान को फिल्मों में काम बड़ी आसानी से मिल जाता था, लेकिन वह काम केवल लोगों को हंसाना होता था.'
वह बताते हैं, 'अधिकतर फिल्मों में उस समय में जो कॉमेडी होती थी और आज भी होती है, उसमें मोटे लोगों को हास्य पात्र के तौर पर इस्तेमाल करते हैं..मोटा शख्स हमेशा हास्य का विषय होता है. मैं इससे बचना चाहता था. चूंकि मैंने थियेटर में काम किया था तो मुझे लगता था कि मैं मोटा हुआ तो क्या हुआ मैं और भी चीजें कर सकता हूं.'
उन्होंने कहा, 'मेरे साथ अच्छी चीज यह हुई कि मेरी पहली फिल्म 'बैंडिट क्वीन' थी जो कोई बॉलीवुड फिल्म नहीं थी..और इस फिल्म के कारण मेरी कई अच्छे लोगों से मुलाकात हुई। मैंने सुधीर मिश्रा की 'इस रात की सुबह नहीं' की, जो मेरी दूसरी फिल्म थी और विशुद्ध बॉलीवुड फिल्म थी। इस फिल्म के एक भाग में मैंने एक हत्यारे की भूमिका निभाई और यहीं से मेरे करियर ने रफ्तार पकड़ी. इसके बाद लोगों को लगा कि यह शख्स केवल हंसने-हंसाने के लिए ही नहीं है.'
'बैंडिट क्वीन' के बाद से आपने रियलिस्टक सिनेमा में क्या बदलाव महसूस किया है? इस सवाल पर उन्होंने कहा, 'बहुत बदलाव आया है. फिल्म निर्माताओं के लिए पहले यर्थाथवादी सिनेमा को बनाना बहुत मुश्किल था. मैं आपको बताता हूं कि जब मैं और हमारे कुछ निर्देशक व लेखक मित्र पटकथाएं लिखते थे तो हम अपनी खुद की कहानियों को हम किसी और अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों से प्रेरित बता देते थे, क्योंकि उस समय फिल्म निर्माता ऐसी फिल्मों के लिए साफ इनकार कर देते थे. इसीलिए हम उन्हें दूसरी फिल्म पर आधारित बता देते थे, वह चीज अब बिल्कुल बदल गई है। अब वही निर्माता हमारी खुद की कहानियां मांगते हैं.'
सौरभ खुद एक थिएटर आर्टिस्ट हैं. जब उनसे पूछा गया कि क्या फिल्मों की वजह से थियेटर खत्म हो रहा है, इस पर उन्होंने कहा, 'नहीं..बिलकुल नहीं, यह पिछले 100 सालों से कहा जा रहा है कि सिनेमा के आने से यह खत्म हो जाएगा या हो गया है. जब टेलीविजन आया तो लोग कहने लगे कि सिनेमा मर जाएगा, लेकिन वह नहीं मरा और अब डिजिटल के आने से लोग कह रहे हैं कि टेलीविजन खत्म हो जाएगा..कुछ खत्म नहीं होता है, सबकी अपनी-अपनी जगह है.'
उन्होंने कहा, 'बात यह है कि थियेटर हमेशा से पैसे के मामले में मुश्किल में रहा है. उसे उतना पैसा नहीं मिल पाया. यह बहुत बड़ी आर्थिक गतिविधि नहीं है. ऐसा नहीं है कि थियेटर में कोई कुछ नहीं कर रहा है, यहां भी बहुत अच्छा काम हो रहा है. मैं इन दिनों खुद दो नाटकों पर काम कर रहा हूं.'