By  
on  

2.44 में 'पद्मावत' ने द‍िखा दिया अपना 'जौहर', पढ़ें फ‍िल्‍म का रिव्‍यू

स्‍टार: 3.5
कितने बवाल, कितने सवाल, कितनी चर्चा और व्यर्थ की ऊर्जा के बाद आखिरकार संजय लीला भंसाली की 'मोस्ट अवेटेड' फिल्म 'पद्मावत' रिलीज हो ही गई. जब पुलिसवाले गेट्स पर पहरा दे रहे थे और उनके सीनियर अधिकारी अपने वॉकी-टॉकी के साथ ऑडिटोरियम में बैठे थे, उसी बीच अंधेरी के पीवीआर आइकॉन में मैंने 'पद्मावत' का जायज़ा लिया. मैं तो वहां सुरक्षित महसूस कर रहा था, लेकिन वहीं दूसरी तरफ देश के अलग अलग कोनों में श्री राजपूत करनी सेना ने आज अपने आंदोलन और हिंसात्मक तरीके से फिल्म की रिलीज़ को पूरी तरह चुनौती दी.
समझ में यह नहीं आता कि श्री राजपूत करनी सेना को जब अपने ही इतिहास का पूरा अध्याय नहीं मालूम, तो यह फिल्म में संजय लीला भंसाली की व्याख्या क्या समझेगी? फिल्म का प्लाट समझने के लिए उन्हें विकिपीडिया पढ़ना चाहिए. इसका संस्करण फ्री में ऑनलाइन उपलब्ध है. बहरहाल, मैं यह देखने को उतावला था कि संजय लीला भंसाली जैसा डायरेक्टर आखि‍रकार अपनी फिल्म के जरिए क्या दर्शाने चाहता है. 'पद्मावत' एक पीरियड वॉर फिल्म है जो कि लीजेंड्री राजपूत क्वीन पर आधारित है और सूफी कवि मालिक मोहम्मद जायसी द्वारा 1540 में लिखी गई एक कविता से प्रेरित है. लेकिन हॉलीवुड फिल्मकार वॉल्फगैंग पीटरसन ने होमर के इलियाड को पढ़कर 'ट्रॉय' फिल्म में जिस तरह ट्रोजन वॉर को दर्शाया था, उस तरह भंसाली ने मेवाड़ के इतिहास में पूरी तरह घुसने की कोशिश कतई नहीं की है. बल्कि उन्होंने राजा रतन सिंह के लिए रानी के सच्चे प्रेम को ही दर्शाया है. दिल्ली का सुल्तान अल्लाउदीन खिलजी रानी के हुस्न पर फ‍िदा था, यह चित्रण भी रानी की गरिमा को ध्यान में रखते हुए ही कहानी में पिरोया गया है.

लेकिन एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि जब फिल्म की शुरुआत से लेकर अंत तक भंसाली ने फिल्म के अंदर 'पद्मावती' नाम का इस्तेमाल किया है, तो आखिर सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन ने फिल्म का टाइटल बदलकर 'पद्मावत' रखने का निर्देश क्यों दिया? यह तो बिलकुल ऐसी ही बात है कि शराब पर प्रतिबन्ध गुजरात में कड़े तौर पर लागू किया जाएगा, लेकिन ठेकों पर शराब की बोतलों पर लेबल लगाए बिना शराब बेचने पर सरकार को कोई आपत्ति नहीं है!! और अगर फिल्म के जरिये भंसाली राजपूतों का गर्व, उनकी परम्पराओं और संस्कृति को दर्शाना चाहते थे (जिसको बचाये रखने के लिए राजपूत अपनी जान भी दे सकते हैं), तो फिर उन्हें यह फिल्म सबसे पहले करनी सेना और मेवाड़ घराने के राजपरिवारों को दिखानी चाहिए थी. अपनी पीआर एजेंसी के जरिये सभी अफवाहों को गलत बताने के मुकाबले वो तरीका ज़्यादा बेहतर होता. मुझे याद है, प्रोडक्शन शुरू होने पर जब ऐसी अफवाहें सामने आईं कि फिल्म में खिलजी का किरदार कहीं न कहीं  बाइसेक्शुअल हो सकता है, तब उन्होंने इसका मुखर विरोध प्रदर्शन किया था. फिल्म में जिम सरभ ने खिलजी के औपचारिक दास और जनरल मालिक काफूर का जो किरदार निभाया है वो भला और है क्या? यह तो इतिहास की किताबों में भी दर्ज है. फिल्म में भी काफूर को अशिष्‍टतापूर्वक तरीके से खिलजी की  'बेगम' के तौर पर ही दिखाया गया है. पीआर से निश्चित तौर पर इनकार किया गया था कि भंसाली की 'बाजीराव मस्तानी' और 'राम लीला' से बनी हुयी रणवीर सिंह की मर्दाना छवि को बचाकर रखा जाए.

लेकिन जो भी हो, खिलजी के किरदार में रणवीर पूरी फिल्म में छाये हुए हैं. वह एक द्रुतशीतन, खतरनाक और घातक मनोरोगी के रोल में हैं जो लालसा और शक्ति के नशे में चूर है. उसका हर लुक बेचैन और अशांत है. उसकी ज़ुबान रेशमी है लेकिन वो बड़े प्यार से कष्ट और मौर का वादा करती नज़र आती है. उसके लम्बे-लम्बे डगों में चालाकी और खतरा छुपा है. आप उससे नफरत और घृणा करना भी पसंद करते हैं. हालांकि इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि रतन सिंह के रोल में शाहिद कपूर ने कुछ कमाल नहीं किया है. वो बेहद चुपचाप तरीके से प्रभावशाली नजर आए हैं. उनके भाव पद्मावती के लिए उनके प्यार की कोमलता व्यक्त करते हैं. दूसरी तरफ उनका भयानक गुस्सा भी है कि उनकी गिरफ्तारी के बाद पद्मावती, चित्तौड़ के किले और मेवाड़ साम्राज्य का क्या होगा. पिछले कुछ सालों में ये शाहिद का बेस्ट रोल है. अपने कॉस्ट्यूम में वो काफी रॉयल नजर आ रहे हैं. उनकी तुलना आप राजस्थान के पैलेस होटलों में लगी महाराजाओं की सीपिया टोन की पेंटिंग्स से कर सकते हैं. राजपूतों को उन्हें अपना पोस्टर बॉय बना लेना चाहिए. और दीपिका पादुकोण के तो क्या कहने. बहुत ही खूबसूरती और ग्रेसफुली उन्होंने अपना किरदार निभाया है. आखिरकार फिल्म का टाइटल भी उनके रोल को ही डेडिकेट किया गया है. अगर वास्तव में अपने पति, संस्कृति और राज्य की रक्षा के लिए असली रानी पद्मावती भी ऐसी ही लुभावनी, वफादार और प्रचंड थीं जैसी कि फिल्म में दीपिका हैं - तो करनी सेना को अपने तथ्यों को फिर से देखने की जरुरत है, और उन्हें यह फिल्म बनाने के लिए भंसाली का शुक्रिया अदा करना चाहिए.

लेकिन 'पद्मावत' 2.44 घंटे तक कुछ ज़्यादा खिंचने वाली फिल्म लगने लगती है. थ्रीडी में प्लास्टिक के चश्मे लगाकर एक लम्बी फिल्म देखना, घूमर गाने में रानी की मोहकता को निहारना या दृश्यों की भव्यता का गतिमान कविता बने रहना एक समय के बाद मुश्किल हो जाता है. फिल्म के रंग जिनका चित्रण आप एक पेंटिंग के तौर पर कर रहे थे वो भागना शुरू कर देते हैं. आप उस लुभावने आश्चर्य या अचरज में 2.44 घंटों तक बैठे बैठे थक जाते हैं, खासतौर पर तब जब आपको इतिहास में खो जाने वाले एक युग की समृद्ध और रंगीन भाषा को लगातार सुनना हो. आप उस सेक्स और एक्शन का इंतज़ार करते हैं जिन्हें भंसाली अपनी पुरानी फिल्मों में दर्शाने पर कभी भी नहीं झिझके हैं. वो यहां नहीं है. 'राम लीला' का रॉ पैशन और उस सेक्स की आवश्यकता या फिर 'बाजीराव मस्तानी' के कामुक और कोमल प्रेम-सम्पादन की झलक इस फिल्म में है भी नहीं. इसके बदले आपको फिल्म में देखने को मिलता है भारी बोझिल वस्त्रों में लिपटा खिलजी जो कि यादृच्छिक महिलाओं को अपनी सल्तनत में खींचने के अनाड़ी प्रयास कर रहा है, या फिर एक पृथक सेक्सलेस एक्ट जो कि दर्शाया गया है खिलजी और उसकी पत्नी मेहरुनिसा के बीच जिसमें दोनों ही पूरी पोशाक पहने हुए हैं. मतलब कोई असभ्यता या अंग प्रदर्शन नहीं. मेहरुनिसा का किरदार बेहद संवेदनशीलता के साथ निभाया है अदिति राव हैदरी ने. अगर रानी पद्मावती और राजा रतन सिंह के बीच रोमांस के अलावा कोई लव-मेकिंग का सीन था भी तो भंसाली बहुत अक्लमंदी के साथ उसे एडिट फ्लोर पर ही छोड़ आये. खिलजी और रतन सिंह के बीच हुआ युद्ध आपको एक बार फिर अखिलीस (ब्रैड पिट) और हेक्टर (एरिक बाना) के बीच ज़िंदगी और मौत की लड़ाई का सीन याद करने पर मजबूर कर देगा. ये दोनों किरदार स्क्रीन पर महज दो चार्जिंग बॉडी नजर आते हैं और सुनाई देती है तो सिर्फ ढाल से टकराने वाली तलवारों की आवाज़.

लेकिन 'पद्मावत' देखकर आप संजय लीला भंसाली की तारीफ किए बिना वापस नहीं आ सकते. इस बात में तो कोई शक नहीं है कि भंसाली अपने काम के मास्टर हैं. अपने सब्जेक्ट से वो पूरी मोहब्बत करते हैं. मैं चाहूंगा कि अगली बार बस वो एक हैप्पी एंडिंग वाली फिल्म बनाएं. वर्ण हमेशा उनकी फिल्मों का अंत उनके लीड एक्टर्स की दुखद और एकाकी मौत के साथ होता है. लेकिन इसमें भंसाली का कोई दोष नहीं है, यह इतिहास ही ऐसा है. जिस तरह इतिहास की विकृति का दोष उनके माथे मढ़ा गया था उसको देखते हुआ बतौर निर्देशक भंसाली का पतन बिलकुल भी नहीं हो सकता. 'राम लीला' और 'बाजीराव मस्तानी' के बाद दर्शक काम से काम इस बात से तो खुश होंगे कि 'पद्मावत' के अंत में भंसाली ने रणवीर को मरने नहीं दिया!!

Translated by: Deepika Sharma 

 

Author

Recommended

PeepingMoon Exclusive