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Exclusive: 'इनसाइडर-आउटसाइडर' की डिबेट पर बोले 'बुलबुल' फेम अविनाश तिवारी, कहा- 'गाली देने में टाइम लगाने से अच्छा है किसी की तारीफ कर दो'

अविनाश तिवारी अपनी हालिया रिलीज नेटफ्लिक्स फिल्म 'बुलबुल' की कामयाबी से काफी उत्साहित हैं. 2016 में फिल्म 'तू है मेरा संडे' से फिल्मी करियर की शुरुआत करने वाले अविनाश को पहचान मिली इम्तिआज अली की लिखी और उनके भाई साजिद अली के डायरेक्शन में बनी फिल्म 'लैला मजनू' से. 2018 में आई इस फिल्म में उन्होने कैस यानि मजनू का किरदार निभाया था जिसके लोग दीवाने हो गए. उनकी लैला बनीं तृप्ति डिमरी के साथ एक बार फिर वो नजर आए बुलबुल में जिसमें उनके निभाए सत्या के किरदार को लोगों ने हाथों हाथ लिया. पीपिंगमून से खास बातचीत में अविनाश ने बताए इस किरदार जुड़ी खास बातें साथ ही इंडस्ट्री में इनसाइडर बनाम आउटसाइडर के मुद्दे पर भी खुलकर बात.

सवाल- आपके लिए 'बुलबुल' की सफलता के क्या मायने हैं  ?
जवाब- ये बहुत कमाल का है. ऐसा बहुत कम फिल्मों के साथ होता है कि फिल्म की एक्टिंग के अलावा उस फिल्म की सिनेमैटोग्राफी, संगीत, डायरेक्शन, प्रोडक्शन डिजाइन जैसे डिपार्टमेंट के बारे में लोग बात करें और उसकी इतनी तारीफ हो जोकि बुलबुल के साथ है. 

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सवाल- डायरेक्टर अन्विता दत्त की सोच को पेश करना आसान था या मुश्किल?
जवाब- 'बुलबुल' में मेरा जो किरदार है सत्या का उसके किरदार से मैं शुरू में तालमेल नहीं बिठा पा रहा था क्योंकि आप देखेंगे के ऊपर ऊपर से देखने पर सत्या में कहीं से भी पुरुष प्रधान व्यक्ति होने का अहसास नहीं होता. मेरे लिए सबसे ज्यादा चुनौती भरी यही बात थी कि कैसे इस एलिमेंट को किरदार में ढाला जाए. देखा जाए तो हमारे समाज में बहुत से लोग सत्या जैसे ही हैं जो वैसे तो कोई गलत बात नहीं करते लेकिन कभी न कभी कुछ ऐसा कर जाते हैं जो उनके प्रति सोच बदल कर रख देता है. गलत की समझ सबसे ज्यादा जरूरी है. अन्विता की जो सोच थी इस किरदार के लिए वो मैं भले ही ले आ पाया लेकिन व्यक्तिगत तौर पर मैने सत्या के साथ हई ज्यादती को देखा. मेरे लिए इस फिल्म को करना की सबस बड़ी वजह थी बुलबुल की टैगलाइन जिसमें वो कहती है कि ‘तुम भी उनकी तरह हो गए हो’ मैने इसे एक ऐसी त्रासदी के रूप में देखा जिसमें सत्या का गलत करने का भले ही इरादा न रहा हो लेकिन उससे गलत हुआ. मेरे लिए वो एक ऐसा व्यक्ति था जिसको गलत समझा गया.

 

सवाल- क्या फेमिनिज्म की बात करने वाली फिल्म में पुरुष प्रधान परिवार और समाज की पहचान करना जरूरी था ?
जवाब- एक पुरुष प्रधान समाज की पहचान के बगैर फेमिनिज्म की मौजूदगी बेमानी है. मेरे हिसाब से, फेमिनिज्म सबको समान अधिकार के लिए खड़ा है.अगर पुरुष कहता है कि ये मैं कर सकता हूं और तुम नहीं तो ये गलत है. ऐसे में  जो लोग गलत करते हैं, उन्हें पहचाना जाना चाहिए ताकि समाज में बदलाव  सके. महेंद्र और इंद्रजीत ने गलत किया, लेकिन सत्या के मामले में, एक महीन लकीर है. वह भोला, निर्दोष और अज्ञानी है, लेकिन मुझे यकीन नहीं है कि वह पुरुषवादी है .लेकिन अगर वो ऐसा है, तो यह एक महत्वपूर्ण विषय है बातचीत के लिए जो होनी चाहिए.

सवाल- बुलबुल के साथ, क्या आपको लगता है कि भविष्य में बॉलीवुड अलग अलग जॉनर की फिल्मों में लचीलापन लाएगा? 
जवाब –होना तो यही चाहिए. वैसे मुझे लगता है कि बॉलीवुड फिल्में भले ही हमेशा से फॉर्मूला पर काम करती आईं हों लेकिन बावजूद इसमें लचीलापन है. हर फिल्म में कॉमेडी, ड्रामा, इमोशन होता है. लेकिन फिल्मों की थीम या जिसे आप जॉनर कहते हैं एक ऐसा शब्द है जो फिल्मों को परिभाषित करता है. वो कहानियां जो किसी एक खास दायरे में फिट नहीं होती हैं. मेरे लिए, ऐसी फिल्में अद्भुत हैं. जैसे लगान, हम इसे एक जॉनर में नहीं रख सकते. ऐसी फिल्में सिनेमा को बेहतरीन तरीके से पेश करती रहीं हैं.

 

सवाल- मौजूदा दौर में जारी इनसाइडर बनाम आउटसाउडर की बहस में बॉलीवुड को दोष देना क्या गैर जिम्मेदाराना नहीं है?
जवाब- मेरी नजर में इसके लिए किसी को भी दोष देना गलत है. ये इंडस्ट्री हमें जीने और सपने पूरे करने का मौका देती है. यहा 95% लोग बाहरी हैं. तो क्यों किसी को दोष दें? मेरी गुजारिश मीडिया से है कि वो जिम्मेदारी निभाते हुए उन लोगों पर रोशनी डालें जिन्हें वाकई इसकी जरूरत है. बाकी दर्शक वही फिल्म देखते हैं जो उनके हिसाब से हकदार हैं. ‘जितना टाइम लोगों को गाली देने में लगाते हैं उतना टाईम उनकी तारीफ करें तो ज्यादा बेहतर होगा.’

 

सवाल- क्या आपको लगता है कि दर्शक किसी का भी करियर बना या बिगाड़ सकते हैं?
जवाब -दर्शकों की भूमिका इस मामले में बहुत बड़ी है. जो भी फिल्म बनती है वो एक्टर डायरेक्टर और इससे जुड़े लोगों की मेहनत और हुनर का परिणाम है. मीडिया उनके इस काम पर रोशनी डालती है और दर्शकों का काम है फिल्म देखकर एक्टर के करियर को बना या बिगाड़ दे.

(Transcribe by Varsha Dixit)

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