Film: भोंसले
Director: देवाशीष मखीजा
Cast: मनोज बाजपेयी, संतोष जुवेकर, इप्शिता चक्रवर्ती सिंह, विराट वैभव, अभिषेक बनर्जी, राजेंद्र सिसादर, कैलाश वाघमारे और श्रीकांत यादव
OTT: SonyLIV
Rating: 3.5 मून्स
फिल्म 'भोंसले' गणपत भोंसले (मनोज वाजपेयी) के साथ शुरू होती है...जो अपने जीवन के सबसे क़ीमती और महत्वपूर्ण रिश्ते को खत्म करने के लिए तैयार है. ये मूवी एक सेवानिवृत्त पुलिस गणपत भोंसले की कहानी हैं जो एक लंबी और पूरी सेवा के बाद संतोष के साथ अपनी वर्दी नहीं छोड़ पा रहा है...दरअसल उसकी बीमारी के कारण उसकी इच्छा के खिलाफ उसको सेवानिवृत्त से रियारड कर दिया जाता है. यह दृश्य मर्मस्पर्शी है और एक प्रभाव पैदा करता है. कई मायनों में, फिल्म के कई सीन्स फिल्म के टोन को सेट करते है.
भोंसले फिल्म की रिलीज भले ही देरी से हुई है...लेकिन ये फिल्म हमारे देश की करंट सिचुएशन के हिसाब से बिल्कुल फिट है. ऐसे समय में जब इनसाइडर बनाम आउटसाइडर की बहस अपने चरम पर है और कोरोनावायरस लॉकडाउन के चलते प्रवासी अपने घरों तक पहुंचने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं, फिल्म भोंसले का आना प्रासंगगिक बन गया है. ये मूवी हमें याद दिलाती है कि लोग रोजी-रोटी के लिए कैसे अपने परिवार और होमटाउन को छोड़ जाने को मजबूर होते है. उनका जीवन कितना कठिन होता है. मनोज बाजपेयी एक 60 वर्षीय सेवानिवृत्त सिपाही गणपत भोंसले के रूप में कई लोगों का प्रतिनिधित्व करते नजर आए हैं. फिल्म में सेवानिवृत्त महाराष्ट्रीयन सिपाही की तुलना अक्सर भगवान गणेश तो कभी-कभी कुत्ते से भी की जाती है. वह एक साधारण जीवन व्यतीत करता है और लोगों से अपनी दूरी बनाए रखने की कोशिश करता है (COVID-19 के दौरान बहुत प्रासंगिक है). मनोज बाजपेयी की एक्टिंग उम्मीद के मुताबिक है और फिल्म एक सीमा तक ही उनके किरदार के साथ न्याय कर पाती है.
विलास (संतोष जुवेकर) राजनीतिक प्रभाव में हैं और विलास महाराष्ट्र से प्रवासियों को साफ करके मराठी मानुस को एक करने में लगे हैं. विलास अपने चॉल में रहने वाले प्रवासियों को हर हाल में अपने अधीन करके उन्हें अपने साथ रखना चाहता है. उन्हें अपने त्यौहारों को नहीं मनाने देना एक ऐसा तरीका है जिससे वह आगे बढ़ सकते हैं. वहीं भोंसले को लगातार मराठी समुदाय के लिए अपना समर्थन देने की बात कही जाती है, लेकिन वह सच्चाई के साथ खड़े होने का विकल्प चुनते हैं और इसे समुदाय के खिलाफ खड़ा माना जाता है. मनोज के पूरे करियर में, भोंसले एक ऐसी फिल्म है जिसमें एक्टर से सबसे कम संवाद है. पूरी फिल्म में, उनके पास शायद 10-15 डायलॉग्स ही हैं, लेकिन उनकी बॉडी लैंग्वेज और आखें काफी है.
भोंसले की पूरी अकेली दुनिया एक अलग मोड़ लेती है...जब एक प्रवासी भाई-बहन की जोड़ी अगले कमरे में रहने के लिए आती है, और यह उसका मानवीय संपर्क का निकटतम रूप है. अचानक से परिस्थितियों ऐसी बनती हैं कि भोंसले की दोस्ती दोनों प्रवासियों 'सीता' और 'लालू' से हो जाती है. सीता (इप्शिता चक्रवर्ती सिंह) जो एक नर्स के रूप में काम करती है सीता को शुरू में भोंसले द्वारा फटकार लगाई जाती है लेकिन जैसे-जैसे वह उनकी देखभाल करने लगती है, उनकी दोस्ती बढ़ती जाती है...हालांकि, सुखद जीवन एक अप्रिय घटना में एक झटका देता है जो भोंसले को अपनी आखिरी लड़ाई लड़ने के लिए मजबूर करता है. फिर उसके बाद उन्हें ऐसे परिणामों का सामना करना पड़ता है, जो समाज में एक प्रमुख मुद्दे को फिर से रेखांकित करते हैं. फिल्म में अभिषेक बनर्जी भी हैं, जिनके पास विलास के खिलाफ जाने की हिम्मत है, लेकिन अपने ही परिवार द्वारा उन्हें समर्थ नहीं मिलता. देवाशीष मखीजा, मिरात त्रिवेदी और शरण राजगोपाल को एक पटकथा लिखने के लिए अच्छा श्रेय दिया जा सकता है. ये फिल्म इस समय के दौरान न केवल प्रासंगिक है, बल्कि बहुत जरूरी भी है. इस फिल्म में सभी मुद्दो पर न्याय किया गया है.
'भोंसले' आज के समय में बहुत प्रासंगिक है. इस फिल्म को इसलिए देखना चाहिए क्योंकि प्रवासियों के वापस घर लौट जाने से होने वाली दिक्कत का सामना अब लोग करने लगे हैं. उनके रहने से होने वाली परेशानी से इतर उनकी कमी को समझने के लिए ये फिल्म देखनी चाहिए.
PeepingMoon.com फिल्म 'भोंसले' को 3.5 मून्स देता है.
(Transcribe by Varsha Dixit)